कविता -जीवनसखी

 कविता -जीवनसखी



जीवन की बगिया में टहलते हुए 


उसने मेरा हात कब पकड लिया


 नही पता चला 


कहा से आयी वो


 परछाई जैसे मुझपर छा गयी




 पर सचमुचमे तो पर परछाई 


 नही निकली


 करपडी संवाद सुबह शाम दिन रात




बोली जो रिश्ता


 दिन का सूरज से 


रात का चांदनी से 


बादल का बारिश से 


सावन का झुलेसे 


नदी का सागर से 


नैया का नदी से 


साज का सरगम से 


राग का बंदिश से 


फुल का सुगंध से 


पंछी का चहचहाट से 


विहंग का गगन से 


बचपन का कहानी से 


चेहरे का आईने से 


कलम का कागज से


 और


कन्हैया का बासुरी से 


वही रिश्ता हैं मेरा तुझसे


 राम प्रहर मे बोली


 तू गाता चल गुन गुनाता चल


 मै गीत बनकर साथ दूंगी


 तेरा निरंतर


 


नंदकिशोर लेले

टिप्पण्या

Jayant Kale म्हणाले…
खरंच, काव्य आणि साहित्य तुझे सगे सोयरेच आहेत. अशीच काव्य बरसत राहो.

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